रहइन : कुड़मि जनजाति का एक विशिष्ट पर्वl
भारतीय सभ्यता संस्कृति बहुआयामी एवं बहुरंगी है। यहाँ अनेक धर्म और संप्रदायों का जमावड़ा देखने को मिलता है। यद्दपि भारत में सिंधु सभ्यता की खोज से पहले वैदिक सभ्यता को आदि सभ्यता माना जाता था परंतु जाॅन मार्शल व दयाराम साहनी जैसे पुरातत्वविदों के द्वारा हड़प्पा सभ्यता की खोज करने के पश्चात यह मिथक बदला था।
बहरहाल आज भी भारतीय सभ्यता संस्कृति का मुख्य प्रवाह वैदिक संस्कृति को ही माना जाता है। परंतु वैदिक सभ्यता से पुर्व प्राक्-वैदिक काल में फली फुली ऑस्ट्रिक-द्रविड़ियन सभ्यता के वाहक भारत के आदिम जनजाति कबिलों में आज भी वही प्राक्-वैदिक जनजातीय सभ्यता विद्यमान है।
आधुनिकता के आगोश में जी रहे शहरी सभ्य समुदायों में इसकी ताकीद नही है। पर आज भी झाड़खंड के बीहड़ जँगलों के अंदर बसे जनजातीय ग्राम्यांचलों में एक सुदीर्घ प्राचीन सभ्यता अजस्र प्रवाहमान है। प्राचीन से मध्य काल तक शेष दुनिया से बेखबर झाड़खंड क्षेत्र की जनजातीय सभ्यता के लोगों पर पहली बार नजरे-इनायत अँग्रेज शासन में हुई।
सन् 1865 में यहाँ पहली आदमसुमारी हुई और दुनिया के मंच पर हमारी जनजातीय सभ्यता की आवाभगत की गई। बीहड़ जँगलों के मध्य बसे जनजाति समुदायों की आदिम संस्कृति मुख्यधारा के संज्ञान में आई। यद्दपि अभी भी जनजातीय संस्कृति पर ठीक से प्रकाश डाला जाना बाकी है।
वृहत छोटानागपुर पठार के राढ़ क्षेत्र में पले इस प्राक्-वैदिक सभ्यता संस्कृति में धान को प्रकृति की महान शक्ति मानते हुए इसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन हेतु बारह मासेक तेरह परबों का सृजन हुआ। सारे परबों में धान को मातृ शक्ति के तुल्य मानकर उसे पुजने की परंपरा झाड़खंड के जनजातीय समुदायों विशेषकर कुड़मि जनजाति में आज भी वैसी ही दिखती है जैसी वह राढ़-सभ्यता के आदिकाल में रही होगी। दरअसल, जनजातीय परंपरा मे कृषिकार्य को सदा ही पूजनीय मानकर इनके सभी आयामो को ‘परब’ के रुप मे प्रतिष्ठित किया जाना अपने आप मे अद्वितीय है। अन्न यहां मातृत्व शक्ति महामाञ है और उसका उत्पादन कार्य उसकी पूजन-पद्धति। अतः अन्न उगाने की जनजातीय पद्धति के सभी चरण यहां उक्त मातृत्व शक्ति के पूजन-पर्व है।
जनजातीय परंपरा मे अन्न उगाने हेतू खेतों की जुताई का शुभारंभ “आखाइन जातरा” कहलाता है। दुसरे शब्दों में, इनकी वर्ष गणना कृषि आधारित पद्धति पर की जाती है और वर्ष का पहला दिन “आखाइन-जातरा” के रूप में खेत में नये कृषिकार्य का पहला हल चलाकर मनाया जाता है। जिस प्रकार आखाइन जातरा के दिन पहला हल जोतने की परंपरा है उसी प्रकार “रहइन जातरा” के दिन पहला “बीजारोपण” करने की परंपरा है। रहइन दिन को एक परम विशिष्ठ दिन की मान्यता दी गई है। रहइन जनजातीय संस्कृति को धरा पर प्रतिष्ठित करने का एक महापर्व है जो धरन मास यानि जेठ महीने के 13वें दिन से आरंभ हो अगले सात दिनो तक का सप्ताह व्यापी आयोजन है। बीजारोपण का प्रतीक स्वरुप यह आदिम काल से इस तथ्य का उदघोष है कि नवीन वर्ष मे भी कृषि उत्पादन कर आगे का मानव जीवन सुखमय बने। ‘रहइन’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ही है- नष्ट होने से बचा रह जाना। जब अन्न के अभाव से आक्रांत हो बीज का ही भक्षण कर लिया जाए तो उसके बाद आगे जीवन की प्रत्याशा समाप्त हो सकती है।अतः आगे भी जीवन चलता रहे इस हेतू अन्न के बीजो को बचाकर रखे जाने व उन्हे न खाकर अगली फसल के निमित्त बीजारोपण होते रहने की आदिम परंपरा स्वरूप ‘रहइन-परब’ का सृजन हुआ।
आदिम कुड़मालि जनजातीय नेगाचारि में “रहइन जातरा” को वर्ष का दुसरा सबसे बड़ा योग माना जाता है क्योंकि इस दिन “बिच-पुइनआ” अर्थात बीजारोपण (कुड़मालि भाषा में बीच के दाने को “बिचि” कहा जाता है) के अलावे और भी कई महत्वपुर्ण संस्कार निपटाये जाते है। कृषि वर्ष के मूल काम काज इसी दिन से अनवरत चलने शुरू हो जाते है। प्रकृति की वंदना, बीजारोपण करना, संपूर्ण खेतों की पहली जोत, खेतों में गोबर डालना, वर्षा आवाहनी जाँत-गित गायन, विषैले जीवों से रक्षा हेतु मंत्र-अध्ययन, पशुओं को रहइन दाग देना एवं घर बाँधना आदि अनेक विशिष्ट आदिम परंपरायें इसी रहइन के दिन ही संपन्न व आरंभ किये जाते है।
रहइन दिन की शुरूआत पौ फटने से पुर्व ही घरों एवं चहारदिवारी के चारों और गोबर की लकीर से रहइन की “धाइर-बेढ़ि” देकर की जाती है। यह काम घर के बाकी लोगों के जगने से पुर्व ही महिलायें कर लेती है। इसकी धारणा ऐसी है कि सोकर उठने पर रहइन दाग को लाँघ कर बाहर निकलने से उस दिन से घर के लोगों पर किसी दुर्घटना का प्रकोप नहीं हो सकता है। अलसुबह घर का मुखिया या उनका बड़ा पुत्र स्नान कर भींगी धोती में ही घर आकर अगहन मास में बनाये गयें बिंटा (धान रखने हेतु पुआल रस्से का बनाया गया बड़ा कंटेनर) से नौ मुट्ठी धान निकालकर गुंड़ि सिंदूर लगाये गये टोकरी या डुभा(कांसे का पात्र) में भर कर गमछे से ढँक सिर पर रखकर दुसरे हाथ मे एक कुदाल लेकर मौन धारण करके अपने खेत जाता है। वहाँ पहले से जोते हुए “बिहन-गाड़ि” के भाँड़ार-कोन में भूमि को प्रणाम करके कुदाल से खोद कर क्यारी बनाता है तथा अढ़ाई मुट्ठी धान डालकर उसपर मिट्ठी ढँक देता है। बाकी बचा धान अपने बैलो को खिला देता है तथा टोकरी में थोड़ी मिट्टी लेकर पुनः मौन स्वरूप घर लौटता है। घर में अपने भुतपिंढ़ा पर मिट्टी चढ़ाता है तथा पुरखों और देउआ भुता के नेमत में पाहुड़ पुजा करता है जिसमें कबूतर, बतख, मुर्गा या मादा बकरी की बलि दी जाती है। बलि के पश्चात पाहुड़ के जीभ का छोटा सा हिस्सा काट कर भुतपिंढ़ा की मिट्टी में गाड़ दिया जाता है तथा खापइर पिठा एव गुड़ का प्रसाद बाँटा जाता है। इस दिन सब्जियों मे नीम का छोंक आखरी बार खाया जाता है तथा पके कटहल को इस दिन से खाना आरंभ करते है। घर के सभी टोकरियों एवं धान नापने तौलने के पात्रों की गुंड़ि सिन्दूर से पुजा की जाती है।
कुड़मि जनजाति कृषकों के बच्चे पारंपरिक रुप से इस दिन सुबह एकत्र होकर ग्राम थान को दंडवत कर बदन पर कीचड़ का लेपन कर नाचते गाते हूए गांवभर घुमते है तथा घर-घर धान के बीज मांगकर अपने बदन पर लगे कीचड़ पर साटकर बीजारोपण का अभिनय करते है। इसी दिन से ग्रामथान मे ग्रामदेवता की पूजा भी शुरू की जाती है जो अगले एक महीने तक जारी रहती है। शाम को घर की बच्चियाँ “रहइन माटि” लाने जाती है जिसे किसी प्रकार की बातचीत या स्वर स्फूटित किये बिना पूर्णतः मौन धारण करके घर तक आना निहायत जरूरी है। शर्त भंग होने पर वह मिट्टी फेंककर दुबारा लाने भेजा जाता है। लाई गई मिट्टी को भुत पिंढ़ा में रखकर उसके कुछ ढेले हर घर के भंडार कोण छोड़ शेष तीन कोनों पर रखी जाती है। बाकी बची मिट्टी को भुत पिंढ़ा के उपर रखकर रात भर एक दिपक जलाकर रख देते है और अलसुबह उस मिट्टी को उठा कर संभालकर घर के अंदर रख देते है। यह योगकृत “रहइन माटि” कहलाती जिसका उपयोग सभी प्रकार के पवित्र कार्यों मे चंदन से भी अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है।
शाम को गाँव के “करम-आखड़ा” में वर्षा आवाहनी जाँत-गितों का आरंभ होता है जिसमें सभी महिला पुरूष आनंदातिरेक में देर रात तक झुमते है। जाँत गितों का महत्व इस मायने में है कि जितने अधिक जाँत गित गाये जाते है उतनी ही अधिक वर्षा होती है। उन गीतों में ऐसी विशिष्ट स्पंदन क्षमता होती है जो जलवाष्प के कणों को घनीभूत कर भारी बना सकती है जो अंततः वर्षा रूप में दृष्टिगोचर होता है। कुछ ऐसा ही जिस प्रकार कि वैदिक शास्त्र में राग मेघ-मल्हार गाकर वर्षा लाने की बात कही जाती है। रात में खापइर पिठा एवं एक विशिष्ट लता का फल सभी खाते है जिसे आसाड़ी फल या रहइन फल कहा जाता है। अधिक उपलब्ध रहने पर उसकी सब्जी भी बनती है। ऐसी मान्यता है कि रहइन फल को रहइन योग मे खाने पर वर्ष भर विष का प्रभाव नही हो सकता। यही कारण है कि रहइन फल नही मिलने पर अंततः इसके पत्ते को ही खाना चाहिए। इस प्रकार बड़े धुमधाम से रहइन परब का पहला दिन समाप्त होता है। परंतु उसके अगले सात दिनो तक रहइन डाह के नाम से यह जारी रहता है। इस मौके पर कृषक अपने सभी खेतों में बीज डालने का काम पूरा करते है।
जनजाति समुदायों के सभी पर्व विशेष रूप से प्रकृति के प्रति कृतज्ञता जाहिर करने के तौर पर मनाये जाते है। इसमें किसी राजा या देवी देवता की पुजा नही की जाती बल्कि प्रकृति की सृजन शक्ति को आराध्य मानकर उनके निमित्त आराधना की जाती है। रहइन परब में भी प्रकृति की मातृशक्ति स्वरूपा धान की आराधना की जाती है क्योंकि इनके पुरखों ने अपने माँ के दुध के बाद धान रूपी माता के दुध से बने चावल को अपना मुख्य आहार के रूप में पाया और उसे अपने जीवन निर्वाह का मुख्य स्रोत बनाया। अतः धान के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन को प्रकृति रूपी माँ की सबसे महत्वपूर्ण आराधना माना गया।
प्रकृति के इन्ही अवदानों के प्रति कृषिजीवी कुड़मि जनजाति के साथ ही अन्य जनजातियों में यह परब इसी स्वरूप में एक विशिष्ट जनजातीय आयोजन है। इस प्रकार प्राक्-वैदिक काल से ही कृषि-जीवी जनो के आदिम संस्कृति के निर्वहन करते ‘रहइन परब’ में जनजातीय परंपरा के जीवन प्रत्याशा का प्राकृतिक निदर्शन भी है।
चिरकाल से ही सदा उपेक्षित रहे हमारे जनजातीय समाज की यह विशिष्ठता है कि इनकी अपनी कुदरती परंपराएं प्रकृति की गोद मे पल्लवित-पूष्पित हुई व अभी तक जनजीवन के संग अजस्र प्रवाहमान है। इनकी परंपरागत वैशिष्ट्य है कि यहां प्रत्येक माह मे कृषि आधारित एक पारंपरिक पर्व का आयोजन अवश्य ही मनाया जाता है।
जनजातीय संस्कृति मे तमाम परब-त्योहारों व नृत्य-संगीत की आदिम परंपरा रही है जिसके तहत एक कहावत प्रचलित है-“राउञे गित, डेगें नाच”।
बहरहाल, कथित मुख्य धारा से सदैव उपेक्षित रहे कई आदिम जनजातीय परबों की भांति इस विशिष्ठ जनजातीय पर्व ‘रहइन’ के संबंध में सुधी जनों द्वारा अभी और भी गंभीर खोजकार्य की महती आवश्यकता है।
रहइन परब,