Tusu Festival – टुसु परब

टुसु परब क्या है ओर क्यूँ मानया जाता है ?

टुसु परब  परंपरा के अनुसार बालिकाओं  द्वारा टुसू की स्थापना कर विधिवत पूजा से की जाती है , अगहन संक्रान्ति मे डिना(धान) माञ के रूप मे घर लाने के बाद पुरा पुश महिना भर धान देवी या शस्य देवी के रूप मे अराधना की जाती है और मकर के दिन उसे विसर्जित कर दिया जाता है।
 टुसू पर्व झारखंड,ओड़ीसा, बंगाल  के प्रमुख त्योहारों में से एक है, जो कुड़मी सभ्यता के अनुसार वर्ष का अंतिम त्योहार है.अगले दिन से सूर्य कर्क रेखा पर लौटने के लिए मकर रेखा पर होता है, जिसे कुड़मी संस्कृति में कृषि नव वर्ष अखाइन जतरा के रूप में मनाया जाता है।
इस दिन धान बुनकर और हल चलाकर प्रतीकात्मक कृषि कार्य शुरू किया जाता है। यह टुसू त्योहार झारखंड,बंगाल,ओड़ीसा के कुड़मी  का सबसे महत्वपूर्ण त्योहार है।

क्या टुसु राजा की बेटी थी ?

झारखंड की संस्कृती विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति है ।इनकी मान्यताएँ पुर्णतः विज्ञान सम्मत है ।जाने अंजाने हम खुद अपनी ही अपनी संस्कृति के संबंध मे अटपटांग और आधारहिन बाते बोलते और लिखते रहे है । यही कारण है कि पुर्णतः विज्ञान आधारित टुसु को कभी किसी राजा की बेटी तो कभी गरीब धर की सुन्दर कन्या तो कभी हाड़ मांस की देवी बना डलते है ।सिर्फ यही नही हम टुसु की तरह तरह मुर्ती बना कर ब्राम्हमन से पुजा करवाने लगते है ।हम जाने अंजाने खुद अपनी संस्कृति को विकृत करते रहे है।यह अत्यंत दुखद है। 

टुसु की दार्शनिक और वैज्ञानिक पक्ष

डॉ. राकेश महतो – प्राग ऐतिहासिक भारतीय संस्कृति में टुसु एक अति महत्वपुर्ण त्योहार है।इसका वास्तविक स्वरूप केवल धनबाद पुरूलिया राचीँ आदि क्षेत्र मे ही देखने को मिलती है ,जबकि अधिकांश जगह पर इसका रूप काल्पनीक कथा कहानियों और बाहरी संस्कृति  के प्रभाव मे विकृत हो चुका है ।मकर संक्रान्ति के उपलक्ष्य मे मनाए जाने वाले देशभर के विभिन्न आयोजनो के मुल मे टुसु परब की द्रविड़ हड़ सभ्यता के ही तत्व विद्मान है ।ये सभी आयोजन मुल रूप से टुसु पर्व के ही अपभ्रंशित रुप है।द्रविड़ सभ्यता के युग मे जिस विज्ञान आधारित दर्शन का प्रदुर्भाव प्रागऐतिहासाक भारत मे हुआ था,कदाचित अवैज्ञानिक  संस्कृति के प्रभाव मे विध्वंस का शिकार हो चुका है ।टुसु पर्व भी इससे अछुता नही है।प्राचीन मान्यता के अनुसार इस बृहद झारखंड या राड़ क्षेत्र मे टुसु उत्सव पुर्ण धार्मीय संस्कार के साथ मनाया जाता है ।परंपरा के अनुसार झारखंड क्षेत्र के जनमानस पहला माघ से वर्ष का प्रारंभ मानते है ,और मकर संक्रान्ति को होता है वर्ष का अंतिम दिन ।सौर वर्ष के अनुसार मकर संक्रान्ति के दिन सुर्य पृथ्वी से सर्वोच्च दुरी पर स्थित होता है और इसके बाद पहला माघ से सुर्य धीरे धीरे क्रमशः पृथ्वी के समीप की और अपनी कक्षा मे आगे बढने लगती है।इसी लिए झाड़खंडि संस्कृति मे मकर संक्रान्ति को वर्ष का अंतिम दिन माना जाता है ,जबकि पहला माघ अर्थात “आखाइन जातरा” को वर्ष का प्रथम दिन माना जाता है । वर्ष का अंत झाड़खंडि संस्कृति मे पुस महिने मे हो जाती है ।पहला माघ से ज्योही पुनः पृथ्वी के समीपस्त की और सुर्य अग्रसर होनी प्रारंभ करती है ,यही क्षण “आखाइन यात्रा” कहलाती है ।आखाईन अर्थात शुरूआत ।इसी दिन कृषि आधारित झाड़खंडी संस्कृति मे कृषि कार्य का प्ररंभ का दिन मानी जाती है ।इसलिए इसी दिन खेत मे बीज बोने तथा हल चलाने की सांकेतिक शुरुआत की जाती है ,जिसे हारपुन्या कहा जाता है ।सुर्य और पृथ्वी के बीच की दुरी के घटते बढते रहने के कारण ही ॠतु परिवर्तन की घटना परिघटित होती है । सुर्य की स्थिति परिवर्तन के कारण होने वाली ॠतु परिवर्तन से ही हमारी फसलो को पुर्णता प्राप्त होती है,एवं हमारा घर धन धान्य से परिपुर्ण हो उठती है ।जिस शक्ति के प्रभाव से हमारा घर धन धान्य से परिपुर्ण हो उठती है ,जिस शक्ति के सहायता से जनजाति समाज पुर्णता को प्राप्त करता है और घर धन धान्य से परिपुर्ण हो उठता है ,उसी शक्ति को शस्य देवी ,टुसु देवी या मातृ देवी के रूप मे आराधना की जाती है ।(यहाँ देवी का अर्थ किसी मानव रूपी देवी से नही है )चुकि सुर्य की सर्वोच्च शिखर या दुरी अर्थात टुई (शिखर) पर सुर्य की स्थिति के फलस्वरूप ही हमे संपन्नता प्राप्त होती है , इसलिए सुर्य (सु) की टुई अर्थात शिखर(सु) पर स्थिति के कारण ही इस शक्ति को ” टुसु ” नाम दिया गया है ।(देखे मानभुम के प्रथम मनोनीत सांसद खुदीराम महतो कृत कुडमाली डिक्सनरी)
सुर्य की “टुई” अर्थात शिखर पर स्थिति के समय ही कृषि फसल मे जिवन शक्ति समाहित हो फसल को पुर्णता प्रदान करती है और इसी फसल को खाकर हममे उसी जिवन शक्ति का संचार होता है ।हमारे फसलो मे समाहित उसी सृजनशील जीवन शक्ति ही टुसु कहलाती है। टुसु के एक गीत मे कहा गया है –
पानिञ हेला पानिञ खेला, पानिञ तहराक क्अन आहोन?
भाल्अ कोरि भाभि देखा ,पानिञ ससुरघार आहोन।।
अर्थात पानी और ससुराल के बिना सृजन संभव नही है ।
एक अन्य गीत मे–
मे–टुसु मनी आज गो आलता पिनदहा गोड गो,
सोनाक खाटिञ हेलन देइअ रूपाक खाटिञ गड गो।।
अर्थात जब धान पका होता है तो उसका उपरी रंग सोना जैसा चमकीला दिखता है ।ऐसा लगता है मानो सोने के पलंग पर लेटी हो ।दुसरी और धान के पौधे का पैर अर्थात निचला भाग शैवाल के रंग से शंकर लाल हो गयी है जो आलता लगाऐ पैर जैसी नजर आ रही है ।खेत मे भरा जल सुर्य प्रकाश से चाँदी सा चमक रहा है ,और ऐसा लग रहा है कि धान के पौधे का पैर चाँदी के पलंग पर पड़ा हो ।एक दुसरे गित मे –
एक सड़पे दुइ सड़पे ,तिन सड़पे लक चलय ।
हामर टुसु माझे चलय बिन बातासे गात डलय।।
अर्थात इस जगत मे सत्य रम और तज तीनो गुण वर्तमान है ।सत्य मे चलना लगभग असंभव है ।तम मे अंह घृणा हवस का भय है ।इसी कारण मध्य पथ यानि रज पथ मे ही टुसु देवी चलती है ,जो सृष्टी की राह है ।टुई मे सु की स्थिति के कारण ही फसल मे रज गुण की पाप्ति होती है तभी धान पकता है ।उसी समय देखा जाता है कि पके धान के पौधे प्रायः बिना हवा मे ही हिलते डुलते नजर आते है ।झाड़खंडि संस्कृति मे इस धान देवी को अगहन संक्रान्ति मे डिना माञ के रूप मे घर लाने के बाद पुरा पुश महिना भर धान देवी या शस्य देवी के रूप मे अराधना की जाती है और मकर के दिन उसे विसर्जित कर दिया जाता है।जब तक धान खेत मे रहता है ,धान कहलाती है ।यही पकने के बाद जब घर पहुँचती है तो ये डिनि माञ कहलाती है ।डिनि को अगहन संक्रान्ति के दिन घर लाकर आनुष्ठानिक ढंग से खलिहान मे प्रतिष्ठित किया जाता है।डिनि जिरान के बाद पहला पुस को उसी डिनि माञ या धान देवी को घर मे लाकर प्रतिष्ठित किया जाता तो वो टुसु कहलाती है ।टुसु को पुरे माह भर पुष्प चढ़ा कर गीत गाकर अराधना की जाती है ।टुसु किसी जन्म मृत्यु के चक्र से बँधी देवी नही है बल्कि यह एक शक्ति है जो हमारी फसल के अंदर जिवन शक्ति के रूप मे विद्यमान रहती है ।
टुसु विसर्जन के समय जिस चौड़ल के व्यवहार की प्रथा है ,वो वास्तव मे टुसु के स्वरूप को मुर्त रूप देने मे सहायता करता है।टुसु की चौड़ल की आकृति तथा व्यवहार पद्धति से भी प्रमाणित हो रहा है कि टुसु अराधना वास्तव मे एक शक्ति की अराधना है जो शक्ति प्रकृती की कृपा से मानव शक्ति रूपान्तर के माध्यम से प्राप्त करता है ।जो शक्ति बीज से शष्य, शष्य से फसल ,फसल से खाद्ध, और खाद्ध से जीवन शक्ति के रूप मे रूपान्तरीत हो हमे गतिमान करती है ,हमारे अंदर जीवन शक्ति का संचार करती है ।इसी गतिशिलता के प्रतिक है रथ नुमा चौड़ल जो गतिशिलता और निरंतरता का प्रतिक है ।इसी रथ नुमा चौडल मे बिठा कर टुसु को बिदाई दी जाती है ।इस सृजनशक्ति का मूल श्रोत सुर्य है, इसीलिए चौड़ल के उपर शीर्ष मे एक गोलाकार फुल लगाया जाता है जो वास्तव मे सुर्य का प्रतिक होता है ।चौडल के चार कोने भु,जल, वायु और आकाश के प्रतिक है जबकि बीच मे सुर्य का प्रतिक गोलाकार फुल लगाई जाती है।इस पंचभूत मे समाहित शृजन शक्ति ही टुसु शक्ति है जिस शक्ति की अराधना से ही हमारा घर धन धान्य से परि पूर्ण होता है।

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